लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
' स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है ' के उद्घोषक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का भारत राष्ट्र के निर्माताओं में अपना एक विशिष्ट स्थान है । उनका जन्म 1857 की क्रान्ति से प्रायः एक वर्ष पूर्व हुआ । इससे लगभग 38 वर्ष पूर्व महाराष्ट्र में 1818 तक पेशवा शासन का अन्त हो गया था और इसके साथ ही देश के अन्य राज्यों की भांति । महाराष्ट्र में भी अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई धर्म का प्रचार - प्रसार आरम्भ हो गया था । तिलक के व्यक्तित्व को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
उनका सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक और शिक्षण संस्था के संस्थापक के रूप में आरम्भ हुआ । इसके बाद ' केसरी ' और ' मराठा ' उनकी आवाज के पर्याय बन गए । इनके माध्यम से उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध तो किया ही , साथ ही भारतीयों को स्वाधीनता पाठ भी पढ़ाया । वह एक निर्भीक सम्पादक थे , जिसके कारण उन्हें कई बार सरकारी कोप का भी सामना करना पड़ा ।
उनकी राजनीतिक कर्मभूमि कांग्रेस थी , किन्तु उन्होंने अनेक बार कांग्रेस की नीतियों का विरोध भी किया । वस्तुतः वह सत्य को डंके की चोट पर कहते पर उनकी राजनीतिक कर्मभूमि कांग्रेस थी , किन्तु उन्होंने अनेक बार कांग्रेस की नीतियों का विरोध भी किया । वस्तुतः वह सत्य को डंके की चोट पर कहने पर विश्वास करते थे । अपनी इस स्पष्टवादिता के कारण उन्हें कांग्रेस के नरम दलीय नेताओं के विरोध का सामना भी करना पड़ा । इसी विरोध के परिणामस्वरूप उनका समर्थक गरम दल कुछ वर्षों के लिए कांग्रेस से पृथक भी हो गया था , किन्तु उन्होंने अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया । लंबे समय तक वह भारतीय राजनेताओं में सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति रहे । उनके महनीय गुणों की भारतीयों ने ही नहीं , अपितु कई अंग्रेजों ने भी प्रशंसा की है ।
वह एक पारम्परिक सनातन धर्म को मानने वाले हिन्दू थे । उनका अध्ययन विशाल था । उनके द्वारा किए गए शोधों से उनके गहन - गम्भीर अध्ययन का परिचय मिलता है । अपने धर्म में प्रगाढ़ आस्था होते हुए भी उनके व्यक्तित्व में संकीर्णता का लेशमात्र भी नहीं था । अस्पृश्यता के वह प्रबल विरोधी थे । इस विषय में एक बार उन्होंने स्वयं कहा था कि जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थे । महात्मा फुले जैसे ब्राह्मण विरोधी व्यक्ति ने उनके व्यक्तित्व में प्रभावित । होकर ही कोल्हापुर मानहानि मुकदमे में उनके लिए जमानत करने वाले व्यक्ति की । व्यवस्था की थी । वह विधवा विवाह के भी समर्थक थे । एक अवसर पर उन्होंने स्वयं कहा था कि कहने भर से विधवा विवाह को समर्थन नहीं मिलेगा ; यदि कोई वास्तव में इसे प्रोत्साहन देना चाहता है , तो उसे ऐसे अवसरों पर स्वयं उपस्थित रहना चाहिए और । इनमें दिए जाने वाले भोजों में भाग लेना चाहिए ।
निश्चय ही तिलक अपने समय के प्रणेता थे ।
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